मकानों के शहर में एक घर ढूँढती हूँ…
रात जो खो गयी थी वो सहर ढूँढती हूँ…
हर चेहरे में छुपा है कोई और ही शख्स…
मै आईने में अपना ही अक्स ढूँढती हूँ…
मकानों के शहर में एक घर ढूँढती हूँ…
बारिश का वो काला बादल…
माँ का आसू पोछता आँचल…
सखी-सहेलियों की वो बाते…
और बरसो पुरानी मुलाकाते…
जब बैठा करते थे सब साथ कही…
ऐसा कोई पहर ढूँढती हूँ…
मकानों के शहर में एक घर ढूँढती हूँ…
हर रोज़ नयी फरमाईशे…
चाँद को पाने की ख्वाहिशे..
सपनो से भरी वो आखे…
सोती-जागती सी राते…
मचलती थी जो दिल में अक्सर..
ऐसी ही कोई लहर ढूँढती हूँ…
मकानों के शहर में एक घर ढूँढती हूँ…
मन में छुपी कई उलझने…
और राहों की वो अडचने..
चेहरों पर चढ़े वो नकाब…
दिल बहलाने के अंदाज़…
बे-परदा हो गए अब सच सारे…
किसी दिल में छुपा ज़हर ढूँढती हूँ…
मकानों के शहर में एक घर ढूँढती हूँ…
कल 30/04/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
उत्साह वर्धन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद्…
वाह ॥बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
बहुत ही बढि़या ।
Bahut khub dost kya likhate ho…
इस पोस्ट के जरिये तो सभी के मन की बात कह गयी आप….
Bahut hi achha likha hai swapna… very nice poem… !!!
उत्साह वर्धन के लिए आप सभी का धन्यवाद् … 🙂
Rhyme, emotion and feel…everything is there in the poem…enjoyed it very much