घर से निकलकर भटकने का डर…
पथरीले रास्तो पर लड़खड़ाने का डर…
चलते हुए रास्तो पर गिरने का डर…
और गिरके कभी न उठ पाने का डर…
भीड़ में किसी से टकराने का डर..
कई चेहरों में छुप जाने का डर…
लोगो में कही खो जाने का डर…
और खुद को ना ढूंड पाने का डर…
किसी चाहकर भी न पाने का डर..
और पाकर फिर खो देने का डर..
किसी खोकर न जी पाने का डर..
और फिर से टूट जाने का डर…
डरती हु अब मै सिर्फ इस “डर” से..
अब सिर्फ “डरने” से डर लगता है…
डरती हु अब मै सिर्फ इस “डर” से..
अब सिर्फ “डरने” से डर लगता है…
क्या बात कही स्वप्ना जी !
डर होती ही ऐसी चीज़ है ।
सादर
डर से ही डरना चाहिए और उबरना चाहिए. बहुत अच्छी कविता.
जी भारत भूषण जी…डर उबरने का एक यह प्रयास है…प्रोत्साहन के लिए आभरी हु आपकी 🙂
कल 01/12/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
अब सिर्फ “डरने” से डर लगता है…
bahut sundar…
awesome!
i liked last 6 lines in particular
good post! keep writing.. 🙂
and congratulations for getting linked on nayi-purani halchal!!!
Thanks Ankita 🙂
beautifully expressed the FEAR.
thanks Ankit 🙂
🙂 very nice poem.
Thanks Vivek 🙂